आपको-अपने जीवन में क्या करना है? – Aapko Apne jivan mein kya karna hai ? By J. Krishnamurthy

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जिस तरीके से आप और मैं अपने – अपने मस्तिष्क से जुड़े हैं , आपस में जुड़े हैं , निजी आधिपत्य की अपनी वस्तुओं से जुड़े हैं , धन , कर्म और सेक्स से जुड़े हैं – यह जुड़ाव , यह सन्निकट संबंध ही समाज का निर्माण करते हैं । स्वयं अपने से संबंध और पारस्परिक संबंधों को छह अरब से गुणा कर देते ही यह संसार बन जाता है । हम ही संसार हैं – हममें से प्रत्येक के पूर्वाग्रहों का संचयन , हममें से प्रत्येक के पृथक अकेलेपन का एकत्रीकरण , प्रत्येक की लोभी महत्त्वाकांक्षा , प्रत्येक की शारीरिक और भावनात्मक भूख , हममें से प्रत्येक में विद्यमान क्रोध और उदासी यही हम हैं और यही संसार । संसार हमसे कुछ भिन्न नहीं है । हम ही संसार हैं , तो सीधी – सी बात है कि यदि हम बदलें , हममें से प्रत्येक स्वयं में परिवर्तन करे , तो हम संसार को परिवर्तित कर सकते हैं । यदि हममें से केवल एक भी परिवर्तित होता है तो समाज में कुछ छिड़ता है । भलाई दूसरों को छूती है , फैलती है । स्कूल में हमें अपने अभिभावकों व अध्यापकों को सुनना सिखाया जाता हैं । तकनीकी तौर पर यह सार्थक है , परंतु मनोवैज्ञानिक तौर पर हज़ारों पीढ़ियों बाद भी हम यह नहीं सीख पाये हैं कि स्वयं दुखी होना और दूसरों को दुख देना- इसे कैसे रोका जाये । अपने भौतिक और वैज्ञानिक विकास के अनुपात में मनोवैज्ञानिक विकास हम नहीं कर पाये हैं ।

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जिस तरीके से आप और मैं अपने – अपने मस्तिष्क से जुड़े हैं , आपस में जुड़े हैं , निजी आधिपत्य की अपनी वस्तुओं से जुड़े हैं , धन , कर्म और सेक्स से जुड़े हैं – यह जुड़ाव , यह सन्निकट संबंध ही समाज का निर्माण करते हैं । स्वयं अपने से संबंध और पारस्परिक संबंधों को छह अरब से गुणा कर देते ही यह संसार बन जाता है । हम ही संसार हैं – हममें से प्रत्येक के पूर्वाग्रहों का संचयन , हममें से प्रत्येक के पृथक अकेलेपन का एकत्रीकरण , प्रत्येक की लोभी महत्त्वाकांक्षा , प्रत्येक की शारीरिक और भावनात्मक भूख , हममें से प्रत्येक में विद्यमान क्रोध और उदासी यही हम हैं और यही संसार । संसार हमसे कुछ भिन्न नहीं है । हम ही संसार हैं , तो सीधी – सी बात है कि यदि हम बदलें , हममें से प्रत्येक स्वयं में परिवर्तन करे , तो हम संसार को परिवर्तित कर सकते हैं । यदि हममें से केवल एक भी परिवर्तित होता है तो समाज में कुछ छिड़ता है । भलाई दूसरों को छूती है , फैलती है । स्कूल में हमें अपने अभिभावकों व अध्यापकों को सुनना सिखाया जाता हैं । तकनीकी तौर पर यह सार्थक है , परंतु मनोवैज्ञानिक तौर पर हज़ारों पीढ़ियों बाद भी हम यह नहीं सीख पाये हैं कि स्वयं दुखी होना और दूसरों को दुख देना- इसे कैसे रोका जाये । अपने भौतिक और वैज्ञानिक विकास के अनुपात में मनोवैज्ञानिक विकास हम नहीं कर पाये हैं ।

स्कूल में हम सब यह तो सीख सकते हैं कि जीवन यापन कैसे किया जाए , परंतु जिया कैसे जाए – यह तो हर एक को स्वयं ही सीखना होता है । यह जीवन हम सभी को बहुत आहत करता है- अकेलेपन द्वारा , भ्रम , असफलता की अनुभूति और हताशा द्वारा । यह हमें निर्धन और भावनात्मक रूप से रुग्ण होने के द्वारा , घर और बाहर व्याप्त हिंसा द्वारा आहत करता रहता है । हमें अनेकानेक बातें सिखाई जाती हैं परंतु जीवन के आघातों से निपटना शायद ही सिखाया जाता हो । एक बात जो हमें नहीं सिखाई जाती यह है कि यह जीवन नहीं , अपितु हमारे साथ जो कुछ घटित होता है उसके प्रति हमारी प्रतिक्रिया ही है जो हमारे विराट का कारण बनती है । शरीर की सरक्षा तो नैसर्गिक है परन्तु क्या उसे भी सुरक्षा देना नैसर्गिक है जिसे हम ‘ अहं ‘ कहते हैं ? यह अहं , यह स्व है क्या चीज़ जो हमारे सभी दुख – क्लेशों का मूल है , उस मानसिक पीड़ा का मूल है जो इसकी संरक्षा करते हुए हम महसूस करते हैं ? नशीले पदार्थों के सेवन , मनोरंजन , सेक्स और व्यस्तता द्वारा हम अपनी मानसिक पीड़ा तथा भय से केवल पलायन करते हैं । पीड़ाप्रद समस्या तो तब भी बनी ही रहती है , बल्कि थकान और व्यसन के कारण यह कई गुना बढ़ जाती है । अहं की गतिविधियों पर नज़र रखना , यह जान लेना कि भय , इच्छा व क्रोध नैसर्गिक तो होते हैं परंतु उनके प्रवाह में बह जाना आवश्यक नहीं है और न ही यह आवश्यक है कि जो कुछ आप चाहें वह आपको मिले ही , यह अंतर्दृष्टि मानसिक संताप को हवा दिये बिना उसे बुझा देती है । हमें अपने स्व को समझने की आवश्यकता है ताकि हम यह जान लें कि यही हमारी समस्याओं का उद्गम स्रोत है । अपने आप में ही तल्लीन न रहना , अपितु अपने विचारों , भावनाओं और अहं की गतिविधियों पर नज़र रखना , उसके जैविक , वैयक्तिक , लैंगिक और सांस्कृतिक संस्कारों पर नज़र रखना , यही ध्यान है ।

Additional information

Weight 0.25 kg
Dimensions 21.59 × 13.97 cm
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