• आर्य-पर्वपद्धति – Arya-Parva Paddhati By Pandit Bhavani Prasad

    पर्वो – त्यौहारों तथा महात्माओं , महापुरुषों के जन्मोत्सव , विजयोत्सव व धर्मोत्सव को मनाना हमारी परिपाटी है । आर्य शताब्दी सभा द्वारा स्वीकृत यह पर्व – त्यौहार पद्धतियाँ हमें पर्वों का शुद्ध व सत्यस्वरूप जानने में अत्यन्त सहायक सिद्ध होंगी । इस पुस्तक से मार्गदर्शन प्राप्त कर समस्त आर्यजगत में त्यौहार एक विधि से मनाए जाएँ , यही इसका उद्देश्य है ।

    वैदिक धर्म वैज्ञानिक धर्म है । श्रेष्ठ संस्कारवान् मानव का निर्माण करना वैदिक संस्कृति का मूलभूत उद्देश्य है । ऋषियों – मनीषियों ने मानव को सुसंस्कृत करने के लिए कुछ पर्व – पद्धतियाँ व कर्मकाण्ड – पद्धतियाँ बनाई । शिशु के गर्भ में आते ही आत्मा को अनेकानेक मलिनताओं से दूर रखने के लिए अर्थात् मृत्यु पर्यन्त आनन्दपूर्वक सुव्यवस्थित जीवन जीने के लिए इन पर्वो कर्मकाण्डों की व्यवस्था की गई है । हमारे पर्व व त्यौहार धर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं , यही आर्य जाति के पर्वों की विशेषता है । पर्वो व त्यौहारों का उद्देश्य मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन को साकार करना , धार्मिकता के भावों तथा आनन्द की वृद्धि करना है । वैदिक कर्मकाण्डों के प्रति श्रद्धा भाव जगाने के लिए बड़ी सरस तथा सरल शैली में इस पुस्तक की रचना की गई है । आइए लेखक द्वारा प्रस्तुत इस परिष्कृत परिपाटी का प्रचार करते हुए पर्वो के शुद्ध व सत्यस्वरूप को संसार के समक्ष प्रकट करें ।

  • आर्य समाज के बीस बलिदानी (Arya Samaj Ke Bees Balidani)

    भारत के नवजागरण तथा उसके धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुथान में आर्यसमाज का जो योगदान है उसे पहले ही इतिहास में अंकित कर लिया गया है। प्रस्तुत पुस्तक में उन 20 आर्य नेताओं के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दिया गया है, जिन्होंने आर्यसमाज के माध्यम से स्वधर्म, स्वराष्ट्र तथा स्वसंस्कृति की सेवा की। आशा है इस लघु कलेवर वाली पुस्तक से पाठकों को आर्य नेताओं के लोक-कल्याण के लिये समर्पित जीवन की सही-सही जानकारी प्राप्त हो सकेगी। डॉ. भवानीलाल भारतीय ने इसे भाषा और शैली की दृष्टि से किशोरोपयोगी बनाकर प्रशंसनीय कार्य किया है ।

  • आर्य और आर्य समाज का संक्षिप्त परिचय (Arya aur Arya samaj Ka Sankshipt Parichaya )

    सामाजिक , आध्यात्मिक एवं राष्ट्रीय विचारधारा के आन्दोलन का नाम आर्यसमाज है । आर्यसमाज एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन है । भारत एवं भारत के बाहर भी अनेक देशों में इसकी शाखाएं हैं । देश के अनेक महापुरुषों ने इसका महत्त्वपूर्ण योगदान समाज सुधार , संस्कृति रक्षा व वर्तमान भारत की स्वतन्त्रता में बताया है ।

    किन्तु फिर भी आम आदमी आज इससे पूर्णतः परिचित नहीं है , इसे समझते नहीं हैं । – पाठकों को इस पुस्तक से आर्यसमाज के प्रति सही जानकारी हो व किन्हीं कारणों से फैली भ्रान्ति नष्ट हो और इसके महत्त्व को जन – मानस समझ सके यही भावना है ।

  • आगरा का लाल किला हिन्दू भवन है-Agara Ka Lal Kila Hindu Bhavan Hai-PN Oak

    ‘ बादलगढ़ ‘ शब्दावली , जो आज तक आगरा – स्थित लालकिले के शाही भागों के नाम के रूप में साथ – साथ चली आ रही है , मध्यकालीन युग में पर्याप्त लोकप्रिय और प्रचलित रही है । यह आगरा के किले के लिए ही विशेष बात नहीं है अपितु अनेक हिन्दू किलों के शाही भागों अथवा उसके समीपस्थ भागों के नाम – योतन के लिए भी इसी शब्द का प्रयोग होता रहा है । अतः यह अनुमान लगाना गलत है जैसा कुछ इतिहासकारों ने किया है कि बादल गढ़ का निर्माण बादलसिंह नाम से पुकारे जाने वाले किसी सरदार ने ही किया होगा । इतिहासकारों को यह खोज निकालने का यत्न करना चाहिए कि मध्य कालीन युग में हिन्दू किले के भीतर के भाग अथवा उसके समीपस्य भागों के नाम किस प्रकार और कब ‘ वादलगढ़ ‘ पड़ गए । किन्तु बादलगढ़ शब्दावली का सम्पूक्तार्थ इतना सामान्य था , यह इसी बात से प्रत्यक्ष है कि यह अनेक हिन्दू किलों के वर्णनों में बारम्बार आया है । उदाहरणार्थ ( बादशाह अकवर का समकालीन ) वदायूंनी इतिहासकार बादलगढ़ के सम्बन्ध में उल्लेख करता है कि वह ग्वालियर में किले की तिलहटी में एक अत्युच्च रचना है । राजस्थान के इतिहास में हमें किलों के भीतर बने हुए अनेक स्थान ऐसे मिलते हैं जिनको बादलगढ़ कहते हैं । उसी परम्परा में आगरे का लालकिला भी या उसके ( भीतर के शाही राजमहल ) वादलगढ़ के नाम से पुकारे जाने लगे । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि बादलगढ़ शब्दावली प्राकृत – मूल की है ।

  • अध्यात्म रोगों की चिकित्सा – Adhyatma Rogo ki chikitsa By Indra Vidhyavachaspati

    भारतीय तथा बाहर के शास्त्रों की सहायता से एक ऐसा संग्रह ग्रन्थ बनाया जाय जो आध्यात्मिक रोगों के रोगियों और उनके परामर्शदाताओं के लिए सुलभ मार्गदर्शक बन सके , इसी भावना से मैंने इस ग्रन्थ की रूपरेखा बनाई है । मैंने प्रयत्न करके , अपनी समझ के अनुसार आध्यात्मिक रोगों के चिकित्साशास्त्र की जो रूपरेखा बनाई है , वह निबन्ध के रूप में प्रस्तुत है । विचारों को अपने अनुभवों से अनुप्राणित करके चिकित्साशास्त्र के क्रम में बाँधने का यत्न किया गया है । मुझे विश्वास है कि इस रूपरेखा के रूप में भी यह निबन्ध माता – पिता , गुरू और आचार्यों के लिए सहायक सिद्ध होगा ।

  • अठ्ठारह सौ सत्तावन का स्वातंत्र्य समर – 1857 Swatantraya Samar

    वीर सावरकर रचित ‘ १८५७ का स्वातंत्र्य समर ‘ विश्व की पहली इतिहास पुस्तक है , जिसे प्रकाशन के पूर्व ही प्रतिबंधित होने का गौरव प्राप्त हुआ । इस पुस्तक को ही यह गौरव प्राप्त है कि सन् १९०९ में इसके प्रथम गुप्त संस्करण के प्रकाशन से १९४७ में इसके प्रथम खुले प्रकाशन तक के अड़तीस वर्ष लंबे कालखंड में इसके कितने ही गुप्त संस्करण अनेक भाषाओं में छपकर देश – विदेश में वितरित होते रहे । इस पुस्तक को छिपाकर भारत में लाना एक साहसपूर्ण क्रांति – कर्म बन गया । यह देशभक्त क्रांतिकारियों की ‘ गीता ‘ बन गई । इसकी अलभ्य प्रति को कहीं से खोज पाना सौभाग्य माना जाता था । इसकी एक – एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाथ होती हुई अनेक अंतःकरणों में क्रांति की ज्वाला सुलगा जाती हैं।

  • अग्नि की उड़ान- Agni ki Udan

    यह पुस्तक ऐसे समय में प्रकाशित हुई है जब देश की संप्रभुता को बनाए रखने और उसकी सुरक्षा को और मजबूत बनाने के लिए चल रहे तकनीकी प्रयासों को लेकर दुनिया में कई राष्ट्र सवाल उठा रहे हैं । ऐतिहासिक रूप से मानव जाति हमेशा से ही किसी – न – किसी मुद्दे को लेकर आपस में लड़ती रही है । प्रागैतिहासिक काल में युद्ध खाने एवं रहने की जरूरतों के लिए लड़े जाते थे । समय गुजरने के साथ ये युद्ध धर्म तथा विचारधाराओं के आधार पर लड़े जाने लगे और अब युद्ध आर्थिक एवं तकनीकी प्रभुत्व हासिल करने के लिए होने लग गए हैं । नतीजतन , आर्थिक एवं तकनीकी प्रभुत्व राजनीतिक शाक्ति और विश्व नियंत्रण का प्रर्याय बन गया है । पिछले कुछ दशकों में कुछ देश बहुत ही तेजी से प्रौद्योगिकी की दृष्टि से काफी मजबूत होकर उभरे हैं और अपने हितों की पूर्ति के लिए बाकी दुनिया का नियंत्रण लगभग इनके हाथ में चला गया है । इसके चलते ये कुछ एक बड़े देश नए विश्व के स्वयंभू नेता बन गए हैं । ऐसी स्थिति में एक अरब की आबादीवाले भारत जैसे विशाल देश को क्या करना चाहिए ? प्रौद्योगिकी प्रभुता पाने के सिवाय वास्तव में हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है । लेकिन क्या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत अग्रणी हो सकता है ? मेरा जवाब एक निश्चित ‘ हाँ ‘ है । और अपने जीवन की कछ घटनाओं से मैं अपने इस जवाब की वैधता साबित करने का इस पुस्तक में प्रयत्न करूँगा ।

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