• कर्मफल सिद्धांत – Karmphal Siddhant

    उपाध्याय जी जन्मजात दार्शनिक थे । दर्शन तथा सिद्धान्त सम्बन्धी अनेकों उच्चकोटि के ग्रन्थ उन्होंने लिखे । पाप , पुण्य , दुःख , सुख , मृत्यु , पुनर्जन्म , जीव व ब्रह्म का सम्बन्ध विषयक अनके प्रश्नों पर इस पुस्तक में युक्तियुक्त सप्रमाण प्रकाश डाला गया है । ‘ कर्म – फल – सिद्धान्त को बार बार पढ़ने को आपका मन करेगा । प्रश्नोत्तर शैली में अत्यन्त शुष्क विषय को उपाध्याय जी ने बहुत रोचक व सरल सुबोध बना दिया है । कर्म फल सिद्धान्त पर छोटी – बड़ी अनेक पुस्तकें हैं , परन्तु उपाध्याय जी की यह पुस्तक अपने विषय की अनुपम कृति | उपाध्याय जी ने स्वयं ही इसका उर्दू अनुवाद किया था । उपाध्याय जी की कौन सी दार्शनिक पुस्तक सर्वश्रेष्ठ है , यह निर्णय करना किसी भी विद्वान् के वश की बात नहीं है । बस यही कहकर सब गुणियों को सन्तोष करना चाहिए । कि अपने स्थान पर उनकी प्रत्येक पुस्तक सर्वश्रेष्ठ है । ज्ञान पिपासु पाठक , उपाध्याय जी के सदा ऋणी रहेंगे ।

  • कथा पच्चीसी ( Katha Pachisee )

    स्वामी दर्शनानन्द जी का यह कथा – संकलन उत्प्रेरक है , मर्म – स्पर्शी भी । यह बालोपयोगी भी रहे , इसके लिए अशलीलता – बोधक शब्दों और पात्रों के नाम बदल दिये गए हैं । इसमें पौराणिक और लोक – कथाओं का रोचक वर्णन है । प्रत्येक कथा अंत में मार्मिक उपदेश दे जाती है । इसे सभी आयु के पाठक पढ़ें और ज्ञानार्जन करें , यही स्वामी दर्शनानन्द जी का ध्येय था और यही हमारा उद्देश्य है ।

  • आर्यभिविनय (Aryabhivinaya)

    महर्षि ने इस लघु ग्रन्थ द्वारा ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान कराया है । ऋग्वेद के 53 मन्त्रों तथा यजुर्वेद के 54 मन्त्रों का हिन्दी भाषा में व्याख्यान करके ईश्वर के स्वरूप का बोध कराया है । ईश्वर के स्वरूप के साथ साथ परमेश्वर की स्तुति , प्रार्थना व उपासना तथा धर्मादि विषयों का भी वर्णन है । 100 – 100 प्रतियाँ खरीद कर अपने परिचितों में बाँटिये ।

  • आपको-अपने जीवन में क्या करना है? – Aapko Apne jivan mein kya karna hai ? By J. Krishnamurthy

    जिस तरीके से आप और मैं अपने – अपने मस्तिष्क से जुड़े हैं , आपस में जुड़े हैं , निजी आधिपत्य की अपनी वस्तुओं से जुड़े हैं , धन , कर्म और सेक्स से जुड़े हैं – यह जुड़ाव , यह सन्निकट संबंध ही समाज का निर्माण करते हैं । स्वयं अपने से संबंध और पारस्परिक संबंधों को छह अरब से गुणा कर देते ही यह संसार बन जाता है । हम ही संसार हैं – हममें से प्रत्येक के पूर्वाग्रहों का संचयन , हममें से प्रत्येक के पृथक अकेलेपन का एकत्रीकरण , प्रत्येक की लोभी महत्त्वाकांक्षा , प्रत्येक की शारीरिक और भावनात्मक भूख , हममें से प्रत्येक में विद्यमान क्रोध और उदासी यही हम हैं और यही संसार । संसार हमसे कुछ भिन्न नहीं है । हम ही संसार हैं , तो सीधी – सी बात है कि यदि हम बदलें , हममें से प्रत्येक स्वयं में परिवर्तन करे , तो हम संसार को परिवर्तित कर सकते हैं । यदि हममें से केवल एक भी परिवर्तित होता है तो समाज में कुछ छिड़ता है । भलाई दूसरों को छूती है , फैलती है । स्कूल में हमें अपने अभिभावकों व अध्यापकों को सुनना सिखाया जाता हैं । तकनीकी तौर पर यह सार्थक है , परंतु मनोवैज्ञानिक तौर पर हज़ारों पीढ़ियों बाद भी हम यह नहीं सीख पाये हैं कि स्वयं दुखी होना और दूसरों को दुख देना- इसे कैसे रोका जाये । अपने भौतिक और वैज्ञानिक विकास के अनुपात में मनोवैज्ञानिक विकास हम नहीं कर पाये हैं ।

  • अग्नि की उड़ान- Agni ki Udan

    यह पुस्तक ऐसे समय में प्रकाशित हुई है जब देश की संप्रभुता को बनाए रखने और उसकी सुरक्षा को और मजबूत बनाने के लिए चल रहे तकनीकी प्रयासों को लेकर दुनिया में कई राष्ट्र सवाल उठा रहे हैं । ऐतिहासिक रूप से मानव जाति हमेशा से ही किसी – न – किसी मुद्दे को लेकर आपस में लड़ती रही है । प्रागैतिहासिक काल में युद्ध खाने एवं रहने की जरूरतों के लिए लड़े जाते थे । समय गुजरने के साथ ये युद्ध धर्म तथा विचारधाराओं के आधार पर लड़े जाने लगे और अब युद्ध आर्थिक एवं तकनीकी प्रभुत्व हासिल करने के लिए होने लग गए हैं । नतीजतन , आर्थिक एवं तकनीकी प्रभुत्व राजनीतिक शाक्ति और विश्व नियंत्रण का प्रर्याय बन गया है । पिछले कुछ दशकों में कुछ देश बहुत ही तेजी से प्रौद्योगिकी की दृष्टि से काफी मजबूत होकर उभरे हैं और अपने हितों की पूर्ति के लिए बाकी दुनिया का नियंत्रण लगभग इनके हाथ में चला गया है । इसके चलते ये कुछ एक बड़े देश नए विश्व के स्वयंभू नेता बन गए हैं । ऐसी स्थिति में एक अरब की आबादीवाले भारत जैसे विशाल देश को क्या करना चाहिए ? प्रौद्योगिकी प्रभुता पाने के सिवाय वास्तव में हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है । लेकिन क्या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत अग्रणी हो सकता है ? मेरा जवाब एक निश्चित ‘ हाँ ‘ है । और अपने जीवन की कछ घटनाओं से मैं अपने इस जवाब की वैधता साबित करने का इस पुस्तक में प्रयत्न करूँगा ।

  • Vedic Mathematics In English

    Vedic Mathematics or ‘Sixteen Simple Mathematical Formulae from the Vedas’ was written by His Holiness Jagadguru Sankaracarya Sri Bharati Krsna Tirthaji Maharaja of Covar- dhana Matha, Puri. It deals mainly with various Vedic mathematical formulae and their applications for carrying out tedious and cumbersome arithmetical operations, and to a very large extent, executing them men- tally. In this field of mental arith- metical operations, the works of the famous mathematicians Trachten- berg and Lester Meyers (High Speed Maths) are elementary compared to that of Jagadguruji.

    Some people may find it difficult, at first reading to understand the arithmetical operations although they have been explained very lucidly by Jagadguruji. It is not because the explanations are lacking in any manner but because the methods are totally unconventional. Some people are so deeply rooted in the conven- tional methods that they, probably subconsciously, reject to see the logic in unconventional methods.

  • श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimadbhagwadgita) By: Swami Samarpananand Saraswati

     ‘ श्रीमद्भगवद्गीता ‘ का समर्पण भाष्य मौलिक विवेचना की दृष्टि से उल्लेखनीय है । यह विशुद्ध सिद्धान्तों पर आधारित है । इसमें कर्म सिद्धान्त पर बहुत ही चमत्कारिक और विद्वत्तापूर्ण ढंग से प्रकाश डाला गया है । गीता में कई स्थानों पर ऐसे श्लोक हैं जो मृतक श्राद्ध , अवतारवाद , वेद – निंदा आदि सिद्धान्तों के पोषक प्रतीत होते हैं । 

    इस पुस्तक में पं . बुद्धदेव जी ने “ तदात्मानं सृजाम्यहं ” का बड़ा सटीक , वैदिक सिद्धान्तों के अनुरुप और बिना खींच तान किए अर्थ किया है कि “ मुझसे योगी , विद्वान् परोपकारी , धर्मात्मा आप्त जन जन्म लेते हैं । सभी अध्यायों के समस्त प्रकरणों में स्थान स्थान पर , गीता के श्लोकों का अर्थ वैदिक सिद्धान्तों के अनुरुप दिखाई देता है ।

    श्रीमद्भगवद्गीता के उपलब्ध भाष्यों तथा इस समर्पण भाष्य में महान् मौलिक मत भेद हैं । जहां अन्य भाष्यों में श्री कृष्ण को भगवान् , परमात्मा के रूप में दर्शाया है । वहां इस भाष्य में उन्हीं कृष्ण को योगेश्वर एवं सच्चे हितसाधक सखा रूप में दर्शाया है । यही कारण है गीता के आर्य समाजीकरण का । यह उनके निरन्तर चिंतन और प्रज्ञा – वैशारद्य का द्योतक है ।

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