• कर्मफल सिद्धांत – Karmphal Siddhant

    उपाध्याय जी जन्मजात दार्शनिक थे । दर्शन तथा सिद्धान्त सम्बन्धी अनेकों उच्चकोटि के ग्रन्थ उन्होंने लिखे । पाप , पुण्य , दुःख , सुख , मृत्यु , पुनर्जन्म , जीव व ब्रह्म का सम्बन्ध विषयक अनके प्रश्नों पर इस पुस्तक में युक्तियुक्त सप्रमाण प्रकाश डाला गया है । ‘ कर्म – फल – सिद्धान्त को बार बार पढ़ने को आपका मन करेगा । प्रश्नोत्तर शैली में अत्यन्त शुष्क विषय को उपाध्याय जी ने बहुत रोचक व सरल सुबोध बना दिया है । कर्म फल सिद्धान्त पर छोटी – बड़ी अनेक पुस्तकें हैं , परन्तु उपाध्याय जी की यह पुस्तक अपने विषय की अनुपम कृति | उपाध्याय जी ने स्वयं ही इसका उर्दू अनुवाद किया था । उपाध्याय जी की कौन सी दार्शनिक पुस्तक सर्वश्रेष्ठ है , यह निर्णय करना किसी भी विद्वान् के वश की बात नहीं है । बस यही कहकर सब गुणियों को सन्तोष करना चाहिए । कि अपने स्थान पर उनकी प्रत्येक पुस्तक सर्वश्रेष्ठ है । ज्ञान पिपासु पाठक , उपाध्याय जी के सदा ऋणी रहेंगे ।

  • आर्य-पर्वपद्धति – Arya-Parva Paddhati By Pandit Bhavani Prasad

    पर्वो – त्यौहारों तथा महात्माओं , महापुरुषों के जन्मोत्सव , विजयोत्सव व धर्मोत्सव को मनाना हमारी परिपाटी है । आर्य शताब्दी सभा द्वारा स्वीकृत यह पर्व – त्यौहार पद्धतियाँ हमें पर्वों का शुद्ध व सत्यस्वरूप जानने में अत्यन्त सहायक सिद्ध होंगी । इस पुस्तक से मार्गदर्शन प्राप्त कर समस्त आर्यजगत में त्यौहार एक विधि से मनाए जाएँ , यही इसका उद्देश्य है ।

    वैदिक धर्म वैज्ञानिक धर्म है । श्रेष्ठ संस्कारवान् मानव का निर्माण करना वैदिक संस्कृति का मूलभूत उद्देश्य है । ऋषियों – मनीषियों ने मानव को सुसंस्कृत करने के लिए कुछ पर्व – पद्धतियाँ व कर्मकाण्ड – पद्धतियाँ बनाई । शिशु के गर्भ में आते ही आत्मा को अनेकानेक मलिनताओं से दूर रखने के लिए अर्थात् मृत्यु पर्यन्त आनन्दपूर्वक सुव्यवस्थित जीवन जीने के लिए इन पर्वो कर्मकाण्डों की व्यवस्था की गई है । हमारे पर्व व त्यौहार धर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं , यही आर्य जाति के पर्वों की विशेषता है । पर्वो व त्यौहारों का उद्देश्य मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन को साकार करना , धार्मिकता के भावों तथा आनन्द की वृद्धि करना है । वैदिक कर्मकाण्डों के प्रति श्रद्धा भाव जगाने के लिए बड़ी सरस तथा सरल शैली में इस पुस्तक की रचना की गई है । आइए लेखक द्वारा प्रस्तुत इस परिष्कृत परिपाटी का प्रचार करते हुए पर्वो के शुद्ध व सत्यस्वरूप को संसार के समक्ष प्रकट करें ।

  • अथातो धर्म जिज्ञासा- Athato dharm jigyasa By Ved Parkash

    ” सम्पूर्ण मानव मात्र के लिए उपयुक्त आदर्श सम्बन्धी नियमन को ही ” धर्म ” कहा जा सकता है और यह ईश्वर द्वारा निर्धारित है । ” – ” धर्म नित्य , शाश्वत एवं सार्वकालिक होता है क्योंकि ये जीव के लिए प्रयोग्य है , जो स्वयं नित्य व अनादि है और इनका नियमनकर्ता ईश्वर भी तो नित्य एवं अनादि ही है । ” – “ धर्म या मानव धर्म , सृष्टिकर्त्ता द्वारा मानव मात्र के लिए विहित आचार संहिता ( Prescribed Code of Conduct ) सृष्टिकर्ता द्वारा मनुष्य को कर्म स्वातन्त्र्य जैसा विशेषाधिकार देने के बाद , उसे कृत्य – अकृत्य कर्मों के निश्चय हेतु मार्ग दर्शन के लिए धर्म की व्यवस्था की गयी है । मनुष्य द्वारा किये कर्मों के मूल्यांकन हेतु मापदंड भी यही है ” …। “ मानव मात्र के लिए सृष्टि के रचनाकार द्वारा विहित धर्म ( Prescribed ) है क्या ? अहिंसा , सत्य , धैर्य , क्षमा , संयम , अस्तेय , पवित्रता , इन्द्रिय निग्रह , बुद्धि , विद्या आदि मनुष्य मात्र के लिए निर्धारित आचरण सम्बन्धी सार्वभौमिक , सर्वकालिक नियम हैं , जिन्हें धर्म की प्रतिष्ठा है अर्थात् मात्र इन्हें ही धर्म के नाम से सम्बोधित किया जा सकता है । इनके अतिरिक्त जो कुछ भी धर्म के नाम से प्रसिद्ध या प्रचलित हैं , वह सब अनर्थक हैं “

  • श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimadbhagwadgita) By: Swami Samarpananand Saraswati

     ‘ श्रीमद्भगवद्गीता ‘ का समर्पण भाष्य मौलिक विवेचना की दृष्टि से उल्लेखनीय है । यह विशुद्ध सिद्धान्तों पर आधारित है । इसमें कर्म सिद्धान्त पर बहुत ही चमत्कारिक और विद्वत्तापूर्ण ढंग से प्रकाश डाला गया है । गीता में कई स्थानों पर ऐसे श्लोक हैं जो मृतक श्राद्ध , अवतारवाद , वेद – निंदा आदि सिद्धान्तों के पोषक प्रतीत होते हैं । 

    इस पुस्तक में पं . बुद्धदेव जी ने “ तदात्मानं सृजाम्यहं ” का बड़ा सटीक , वैदिक सिद्धान्तों के अनुरुप और बिना खींच तान किए अर्थ किया है कि “ मुझसे योगी , विद्वान् परोपकारी , धर्मात्मा आप्त जन जन्म लेते हैं । सभी अध्यायों के समस्त प्रकरणों में स्थान स्थान पर , गीता के श्लोकों का अर्थ वैदिक सिद्धान्तों के अनुरुप दिखाई देता है ।

    श्रीमद्भगवद्गीता के उपलब्ध भाष्यों तथा इस समर्पण भाष्य में महान् मौलिक मत भेद हैं । जहां अन्य भाष्यों में श्री कृष्ण को भगवान् , परमात्मा के रूप में दर्शाया है । वहां इस भाष्य में उन्हीं कृष्ण को योगेश्वर एवं सच्चे हितसाधक सखा रूप में दर्शाया है । यही कारण है गीता के आर्य समाजीकरण का । यह उनके निरन्तर चिंतन और प्रज्ञा – वैशारद्य का द्योतक है ।

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